Wednesday, April 21, 2010

मैं और मेरा अपना पानी

मुझे जब भी, जहाँ भी दिखा पानी
मैंने उसे उठा लिया गोद में,
पीठ पर लाद लिया, सर पे उँच लिया पानी
कंधे भर गये, हाथ भर गये घुटने बल खाने लगे
तो मैंने कलेजे में रख लिया
आँख भरली तो ज़ुबां पर बिठा लिया

मुझे जब भी, जहाँ भी मिला पानी
मैंने उसे ले लिया
हलराय, दुलराया, पुचकारा, थपकाया, चूमा मैंने
कभी मचला भी, लात मारी भी पेट पर
बाल भी नोचे
तब भी मैंने नहीं उतारा अपना पानी
और मना ही लिया उसे

मैंने आसमानों का पानी झेला
धरती से खींचा
हवाओं से सोखा
दिशाओं के पानी को कर लिया सम्मोहित
मृग-मरीचिकाओं से झपट सपनों में भर लिया
मैं खूब डूबा-उतराया मेहनत के पानी में
सूखने नहीं दिया पसीने का पानी
उसे सहेज लिया अंगोछे में
नमक के पानी को शामिल किया अपनी भूखों में

मुझे जब भी, जहाँ भी, जो भी खाली दिखा
मैंने उसमें उंडेल दिया अपना पानी
खुले कुंओं से, ट्यूब-वैल से
लाव-चड़स से, उंट-बैल से
रहट से,
रस्सी-डोल से
इंजिन-बिलजी से
नहर से, नदी से
खेतों में, क्यारियों में भरा पानी
नदियों से भरा अंजुलियों में
नली-नालों से, गड्ड़ों से भरा

पेड़-पौधों में, गमलों-बागों में, दूब में
जड़ों में,फूल-पत्तियों में मैंने भरा
तो फलों में खुद ही भर गया पानी

झील से, झरनों से,
तालाब से, तलाई से,
लौटे-डोर से नल से,
टैंकरों से, हैण्ड पम्पों से,
मटकों-घड़ों, बाल्टियों में, टबों में, चरियों में, टैंक-टंकियों में,
बरतन-बरतन में
मैंने दियों में,डिबसों में, खिलौनों में भरा
मुँह में, आँख में, कान में, नाक में,
घुटनों में, कुहनियों में, पीठ में, नाभि में भरा
मैं नहाया, डूब-डूब गया पानी में
तुमको देखा तो मेरी आँखों में उतर आया पानी

मुझसे पहले वो छुपा था धरती में
आसमानों में चढ़ा बैठा था
मैंने वर्षातों को समेटा और
घरों, छतों, गली-मोहल्लों, सड़कों में भर लिया
आंगन में, दीवारों में भरा
बजरी में, सीमेंट में, ईंट में भी
फिर मैंने पत्थर में भी भर दिया पानी
बालू में भरा, मिट्टी में भरा
मशीन में,
जब मैंने लोहे में भरा तो चीखा पानी
पर मैंने भर ही दिया तो हंसने लगा

बर्फ में था, मैंने उसे आग में भरा
चून में(आटे में), सब्जी में, स्वाद में, सुगंध में
रूखी-सूखी गोली-दवा में, दारू के गिलास में भी

अरे हाँ रे!
सर्दी में, गर्मी में भी दिन में और रात में भी,
मैंने ठंड़ा पानी भरा, गरम-गुनगुना भरा
लौटे में भरा शीतल पानी
और बैठा रहा राह में राहगीरों की
चिड़ियों के लिये भरा फूटे मटकों में
ढोरों के लिये खेल-कोठों में
मछलियों के लिये समन्दर भरे
रेगिस्तानों के लिये प्याऊ में

मेरे साथ हमेशा रहा पानी
चुल्लू में, आँख में, बोली में, हंसी ठिठौली
मेरे स्पर्श में,
लड़ने-झगड़ने में भी, रूठने-मनाने में भी था

माँ ने मुझे बनाया था तरल खून से
दूध से नहलाया था
मेरी जड़ों को सींचा था पानी से
मैं हमेशा रहा पानी में, पानी हमेशा रहा मुझमें
पिता की छाया में था पानी

मैं जब भी, जहाँ भी, जिधर भी, जिसे भी देखता हूँ
सूखने लगा है पानी,

पेड़-पौधों में, जड़ों में, फूल-पत्ती में, दूब में
रंगो में, हरे में, न लाल में
खेल-कोठों में, न टूटे मटकों में
कहीं नहीं है पानी
खाली हैं लौटे, खाली हैं चुल्लू
मृग-मरीचिकाओं तक से उड़ गया पानी

बरतनों में सूखने से पहले वह सूख गया कुंओं, हैण्डपम्पों में, नलों में
खेतों में सूखने पहले वह सूखा नहरों-नदियों में, धरती में
बरसातों में सूखने से पहले पातालों में
शब्दों में सूखने से पहले बोली में
आँखों से पहले कलेजों में सूखा
आँचलों में सूख गया जडों से पहले
पिताओं में सूखा है बेटों से पहले
समन्दरों से पहले नदियों में सूखा
नदियों से पहले वर्षातों में
वर्षातों से पहले ऋतुओं में
ऋतुओं से पहले काल(समय) में सूखा पानी
समय से पहले, बहुत पहले
मनुष्यों में सूखा पानी

एक सपना देखता हूँ
कि फिर से बढ़ सके, फल-फूल सके
कि फिर कभी चप्पे-चप्पे में,
खांचे-खांचे में भर जाये पानी
जैसे हिलौरें मारता था मेरी आँखों में कभी
वैसे ही तटों से हुजलता रहे कभी मेरी संततियों के
सोचता हूँ
जो बचा है थोड़ा-बहुत पानी
उसे उंडेलता चलूं मूल स्रोत में
अपनी संततियों की जड़ों में रीता दूं अपना हृदय
आँखे रीता दूं उनकी आँखों में
बोली को उल्टाकर खाली करदूं उसकी नमी नई भाषा में
कि लगादूं पानी के वृक्ष
जिन पर कभी तो लगें पानी के फल

Friday, April 16, 2010

नक्सलवादः किसे मारा जाना चाहिये ( पहली किस्त)

मेरे दिमाग में नक्सलवाद गूंज रहा है। दांतेवाड़ा के बाद कुछ ज्यादा ही। ब्लाग में इधर-उधर नज़र दौड़ाओ तो कदम - चार कदम पर एक लेख नक्सलवाद पर उपलब्ध है। मुझे नक्सलवाद, माओवाद की इतनी ही जानकारी है कि लोग मर रहे हैं मार रहे हैं, मैं व्यथित हूँ इस मार-काट से। मैं और ज्यादा व्यथित होता हूँ जब मार-काट के पक्षधर और इसे औचित्य प्रदान करने वाले लेख पढ़ता हूँ। मैं हैरान रह जाता हूँ जब यह सुनता हूँ कि एक लोकतांत्रिक देश में मारकाट और बंदूक विचारधारा के अंग हैं। इस माहौल में अपने दुःख को जुबान पर लाने के लिये मुंह खोलो तो भौंचक्के रह जाओगे कि जिसे सुनाने जा रहे हो उसके लिये तो यह भावुकता का विषय ही नहीं है, उसके लिये तो इसके राजनीतिक आयाम हैं और वह चिंतन कर रहा है। आप खुश होंगे जब पायेंगे कि भावुकता वहाँ भी बहुत है लेकिन अपना-सा मुंह ले के रह जायेंगे जब आपका विवेक बार-बार उस भावुकता की सुनियोजितता का पर्दाफाश कर रहा होगा। अब कोई भी यह उम्मीद तो नहीं कर सकता कि किसी उलझे हुए मसले को समझने में बुद्धिजीवी समाज कोई सहायता कर सकता है, सारा बुद्धिवाद भाषा की चालाकी और भावुकता की अय्यारी पर सर के बल करतब करता है। सहजता, निष्कपटता, निष्पक्षता, मानवता, उदारता, अपनत्व, प्रेम, भाईचारा आदि का बुद्धिवाद से कब का तलाक हो चुका है, हाँ उसके औज़ारों पर खोल इन्हीं के हैं और ब्रांडनेम भी यही हैं। बुद्धिवाद के पास ये जाल की तरह हैं जिनमें मछलियाँ फंसाई जा सकती हैं। बुद्धिवाद की राजनीतिक दिलचश्पियाँ भी जग जाहिर हैं, वह कवि, चित्रकार, साहित्यकार, दार्शनिक होते हुए भी मनुष्य को मनुष्य की तरह देखने से परहेज करता है, उसके लिये अपना-पराया खास महत्त्व रखता है।राजनीतिक चश्मा उसके शरीर के अंग की तरह है। बुद्धिवाद का व्यावसायिक क्षेत्र भी अत्यन्त विस्तृत है, कोई कैसी भी मूर्खता करे, कैसा भी अपराध करे, आप दो बिल्लकुल परस्पर विरोधी कार्य करें आपको सबके पक्ष में पर्याप्त बुद्धिजीवी उपलब्ध हैं, नामचीन से लेकर गली के बुद्धिजीवी तक। इसलिये इस आधार पर कि कौन किस पक्ष में है, कुछ तय नहीं होता, तय नहीं होता है कि सही क्या है और गलत क्या है!
हम सुरक्षाकर्मियों की मौत पर विलाप करते लेख पढ़कर भी संतुष्ट नहीं हो सकते हैं क्योंकि बहुत चालाकी से सरकार को ही उनकी हत्यारी सिद्ध किया जा रहा होगा। नक्सलियों के कृत्य को अनुचित तो बताया जा रहा होगा लेकिन सारा जोर इसे उनकी मजबूरी सिद्ध करने पर होगा, बहादुरी, रणनीति के लिये उन्हें शाबासी भी दी गई होगी।
बचपन में डाकुओं का कहानी खूब सुनने को मिलती थी। कहानियों की रचना इस प्रकार की होती थी कि अंततः डाकू हीरो बनकर ही उभरता था। डाकू कितना दयालू है, वह हत्यायें भी नैतिक नियमों के तहत करता है। उसकी क्रूरता में मानवाता का आधार है। वह अत्यन्त वीर है, तीक्ष्ण बुद्धि है। बस! डाकू बनने का ही मन करता था। वह अमीरों को लूटता है और गरीबों को धन बांटता है। कई कहानियों में तो राजा ही रात को डाकू बनकर निकलता था। कोई डाकू क्यूँ बना इसमें व्यवस्था का कोई न कोई कारण अवश्य होता था। कहानी इतनी महान होती थी कि जब तक राजकुमारी की शादी डाकू से नहीं हो चैन नहीं पड़ता था। नक्सलवाद पर कई लेख पढ़ते हुए वे कहानियाँ बार-बार याद आती हैं। जिस तरह बालसुलभ मन में बडे होकर डाकू बनने की इच्छा अंगडाई लेती थी उसी तरह कुछ खाये-अघाये लोगों के लिये माओवादी होना एक एडवेंचर है, उन्हें जीवन में कुछ करना है ! उनके लिये “मरा कौन” का कोई प्रश्न नहीं है, “मारा किसने?” उन्हें इसी से मतलब है।
अब बात मुद्दे कीः- मुझे नक्सलवादी पृष्ठभूमि का ज्ञान न्यूनतम भी नहीं है, मैं उन इलाकों में कभी नहीं गया। हालांकि कुछ ऐसी अफवाहें हैं कि यहाँ राजस्थान में भी कई स्थानों पर नक्सलवादीयों की बैठकें हो चुकी हैं लेकिन प्रत्यक्षतः ऐसा कोई लक्षण आसपास नहीं है। यदाकदा ऐसे उत्पात राजस्थान में हो जाते हैं जिनसे यहाँ नक्सलवाद के बीज पैदा हो सकते हैं। इसलिये मैं उन सब तथ्यों को स्वीकारकर और सत्य मानकर, जो नक्सलवाद के कारणों में गिनाये जाते हैं, नक्सलवादी हिंसा पर विचार करता हूँ। मेरे पास कहने को ज्यादा कुछ नहीं है। यह मानकर भी कि आदिवासियों को जंगल और जमीन से बेदखल किया जा रहा है, सरकारें उनका दमन कर रही हैं, उन इलाक़ों में विकास नही हुआ है वहाँ शिक्षा नही है, चिकत्सा नहीं है, मुझे एक भारतीय होने के नाते यह स्वीकार करने में कठिनाई होती है कि नौबत हथियार उठाने की और मारकाट की आ गई है। एक गुलाम देश की जनता द्वारा विदेशी सत्ता के विरुद्ध या राजशाही के विरुद्ध तो हिंसा की बात गले उतर सकती है लेकिन वर्तमान भारत की सरकार के खिलाफ सुनियोजित और संगठित हिंसा समझ से परे है।

हमारे देश में विकास और नीति-निर्माण का कार्य लोकतांत्रिक सरकारों के अधिकार में हैं। क्या सरकारें नक्सल-प्रभावित क्षेत्रों में चुनाव नहीं करवाती हैं? हो सकता है राजनीतिक दल वहाँ बाहर के उम्मीदवारों को प्रत्याशी बनाते हों (!) लेकिन क्या आदिवासियों के राजनीतिक दल गठन पर रोक या निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने पर कोई रोक(-टोक) है ? क्या उन इलाकों के पंच, सरपंच, प्रधान, जिला प्रमुख, विधायक और सांसद चुनने वाले मतदाता भी बाहरी क्षेत्रों से आते हैं? क्या वहाँ के आदिवासियों से मतदान करने का अधिकार छीन लिया गया है ? क्या इन इलाकों के चुने गये जनप्रतिनिधियों को निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी करने पर प्रतिबंध है ? क्या इन इलाक़ों के लिये विकास की नीतियाँ और अन्य नीतियाँ बाहर के राज्यों से बन कर आती हैं ? इन इलाक़ो में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का बहिष्कार कौन करता है ? कौन क्षेत्रीय लोगों को मतदान करने से धमकाता है, मतदान कर्मियों को गोलियों से भून डालता है ? मत पेटियों को कौन लूट लेता है ? नक्सलियों का स्थानीय जनाधार अपने नेताओं को लोकतांत्रिक वैधता प्रदान करने में क्या कठिनाई महसूस करता है ? घरों से स्थानीय निवासियों को निकालकर बच्चों और स्त्रियों समेत लाइन में खड़ाकर गोलियों से छलनी कर देने वाले हाथ क्या इतने विवश और मजबूर हाथ हैं जो स्कूल नहीं बना सकते, अस्पताल नहीं बना सकते ?
क्या बंदूक चलाना सीखने से ज्यादा कठिन कार्य है ककहरा सीखना ? क्या बंदूक और गोली-बारूद जुटाने से भी कठिन कार्य है धान-गेहूँ जुटाना ? यह एक बेहूदा बात होगी, बेहद घटिया; लेकिन यदि वास्तव में आदिवासियों का विकास और उनके अधिकार ही समस्या का मूल हैं तो जिन बंदूकों से मतदान केन्द्र लूटे जाते हैं, सुरक्षा कर्मियों को मारा जाता है, जंगलराज चलाया जाता है उन्हीं के बल पर बूथों पर कब्जाकर, फर्जी मतदानकर अपने महान् नक्सली नेताओं को संसद और विधानसभा में पहुँचाना आसान काम है। मानवता का खून सडकों पर फैलाने से तो यह बेहतर ही होगा। देश के कई हिस्सों में होता है और हम मूक दर्शक की तरह देखते रहते हैं ।
मुझे टी.वी. पर आठ बरस के बालक (पता नहीं उसका चिंतन कितना समृद्ध है!) को बंदूक उठाये देखना उतना ही वीभत्स दृष्य लगता है जितना पांच बरस के बालक के हाथ में भीख का कटोरा देखना। सुना है, अब तो विदेशों से भी माओवादियों को हथियार सप्लाई हो रही है, वे कौन से संगठन हैं जो यहाँ मौत का सामान सप्लाई कर रहे हैं ? यदि वे पीडितों के पक्ष में हैं तो क्या उन्होंने उन गरीबों-अशिक्षितों के लिये बंदूक भेजने से पहले एक बार भी गेंहू, कपडा, किताबें या दवा भेजी हैं ?
एक प्रश्न यह है कि इन इलाकों में प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक और खनिज सम्पदा है। सरकार इन खानों को पूंजीपतियों को आवंटित करती है, जंगलों से आदिवासियों को बेदखल करती है। सरकार के पास क्या विकल्प हो सकते हैं ? क्या सरकार खनन कार्य स्वयं करे? क्या आदिवासी पूंजीगत और तकनीकी रूप से खनन में समर्थ हैं ? क्या खनन कार्य किया ही नहीं जाये ? क्या सरकार की खनन सम्बन्धी, पर्यावरण सम्बन्धी और जंगल सम्बन्धी कोई नीति नहीं है ? क्या सरकार की नीतियों का डाक्यूमेंटेशन नहीं है और उसे प्राप्त करना पहुँच से बाहर है ? यदि सरकार की उक्त नीतियों में कोई खामी है, वह आदिवासी विरोधी है, पर्यावरण विरोधी है तो क्या उन्हें सुधारने के लोकतांत्रिक विकल्प अनुपलब्ध हैं ? क्या नक्सलवादियों के पास श्रम, खनन, जंगल, जमीन, विकास, और पूंजी सम्बन्धी कोई वैकल्पिक नीति कागज पर तैयार है? सिवाय अधिकार जमाने और लूट के !? क्या खान आवंटन और बडे-उद्योग धंधों से सरकार को कोई आय नहीं होती है ? क्या उक्त आय राष्ट्रीय कोष में जमा नहीं होती है ? क्या इन सम्पदाओं पर क्षेत्रीय कर, क्षेत्रिय संस्थाओं को प्राप्त नहीं होते हैं ? यदि उक्त इलाकों में स्कूल, अस्पताल, बैंक, डाकघर, सड़क, पुल आदि अपर्याप्त मात्रा में हैं, माना कि ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं, तो क्या जितने हैं उनको भी नष्ट करने से कोई विकल्प तैयार होता है ? क्या क्षेत्रीय खनन सम्पदा पर केवल उसी क्षेत्र का अधिकार है बाकी देश की उसमें हिस्सेदारी नहीं होनी चाहिये ? क्या देश के किसी अन्य हिस्से में इससे इतर खनन कानून अमल में लाये जाते हैं ? जमीन से पांच फीट निचे मिले एक चांदी के सिक्के पर भी शायद देश के किसी हिस्से में किसी स्थानीय व्यक्ति या संस्था का व्यक्तिगत अधिकार नहीं है। बाल ठाकरे और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नीति से यह किस तरह अलग है ?
वास्तविक मुद्धा भ्रष्टाचार है, जिससे देश में कौन-सा इलाका अछूता है ? देश के किस इलाके का आम आदमी सरकार से पूर्णतः संतुष्ट है ? मुझे लगता है इनमें से किसी भी प्रश्न के उत्तर में हिंसा फिट नहीं होती है। भावुकता पूर्ण कहानियाँ गढ़कर भी इस देश की मेधा व्यक्तिगत प्रतिकार में हिंसा और एक भावावेश में की गई हिंसा का ही औचित्य ठहरा सकती है, किसी योजनाबद्ध, संगठित और राजनीतिक हिंसा का भारत में आज दिनांक में कोई औचित्य नहीं है। क्या नक्सलवादी अपनी असंतुष्टि के बिन्दुओं को इस देश के आदमी के सामने लिखित रूप में सार्वजनिक नहीं कर सकते, हिंसा छोड़ने और लोकतंत्र में विश्वास पैदा करने के लिये सरकार से अपनी अपेक्षाओं, अपने अधिकारों का कोई अधिकतम या न्यूनतम मांगपत्र सार्वजनिक नहीं कर सकते ? क्या वे सरकार के साथ बातचीत के लिये एक टेबल पर नहीं आ सकते (जबकी सरकार जम्मू-कश्मीर जैसे अलगाववादी इलाके में भी लोकतंत्र बहाल कर सकती है) ?

सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या माओवादियों और नक्सलवादियों की लोकतंत्र में आस्था भी है? वे लोकतंत्र से अधिकतम ऐसा क्या चाहते हैं कि उसके बाद हिंसा छोड़ सकते हैं ? नक्सलवादी नहीं तो क्या उनके प्रवक्ता उस बिन्दु को तय कर सकते हैं (अवसरानुकूल करुण कहानियाँ गढ़ने के अतिरिक्त) ? यदि भारत सरकार उनकी दुश्मन है और विदेशों में हमदर्द बैठे हैं तो इसे हिंसा को दिया जाने वाला उचित नाम क्या है ?

मैं कदम-कदम पर भुगतता हूँ कि भारत में लोकतांत्रिक और विकास संबंधी नीतियों में हजारों-हजार खामियाँ हैं। यहाँ की प्रशासनिक व्यवस्था अत्यन्त लचर है जिसमें भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा है। भारत की 90 प्रतिशत जनता असंतुष्ट है ? कौनसा हिस्सा अछूता है ? लेकिन बंदूक उठाने जैसे हालात मैं भारत में कहीं भी नहीं पाता हूँ। गरीबों को छोडिये देखने में भले-चंगे और खाते-पीते लोगों के दिलों पर हाथ रखकर देखिये वे भी असंतुष्ट हैं उनकी भी पीड़ाओं का अन्त नहीं है । लेकिन माओवादी विचारधार और नक्सलवादी प्रवक्ताओं को बहुत कठिनाई पेश आयेगी यदि अपनी असंतुष्टी के आधार पर प्रत्येक पीडित भारतीय बंदूक उठा लेगा । महात्मागाँधी जब हिंसा के छींटों से व्यथित होकर अपना आन्दोलन वापस ले लेते हैं और इंतजार करने का सब्र अपने में पैदा करते हैं तो वे एक संदेश देते हैं उस संदेश को समझना चाहिये।
एक अत्यन्त महान् चलन आजकल नक्सल प्रवक्ता बुद्धिजीवियों में चल पड़ा है, वे विशाल-हृदय होकर कहते हैं कि दोनों ही और से आम आदमी मारा जा रहा है (अर्थात मानवतावादी होते हुए हिंसा का औचित्य ठहराना वास्तव में मुश्किल है, बहुत)। तो किस खास आदमी को मारना उचित होगा !? प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, उद्योगपति, मुख्यमंत्री, खाते-पीते संतुष्ट लोगों को, अमीरों को ! किसको ? एक-एक व्यक्ति की पहचान करके मारा जाये या इनको समूह में (लाइन में खड़ा करके) मारा जाये ? यदि केवल 10 प्रतिशत और मुझे तो लगता केवल 5 प्रतिशत लोग ही भारत में कर्ता-धर्ता हैं, हर निर्णय के लिये केवल इतने ही लोग जिम्मेदार हैं। बाकी 90-95 प्रतिशत जनता में अधिकतम 30 प्रतिशत जनता ऐसी हो सकती है जो सुविधापूर्ण जी रही है, आम आदमी के अधिकारों को मार रही है, यह 30 प्रतिशत भी मतदान में कम ही हिस्सा लेता है। शेष 60 प्रतिशत में हो सकता है 30 प्रतिशत को नक्सलवादी पीड़ा न समझाई जा सके, लेकिन 30 प्रतिशत को जागरुक किया ही जा सकता है । इस 30 प्रतिशत के माध्यम से उन 5-10 प्रतिशत को हर पांच साल में बदलने का अवसर है जो निर्णय लेते हैं, क्या यह कार्य अबोध बच्चों, महिलाओं, अशिक्षितों के हाथ में बंदूक देने और विमानभेदी रण-कौशल का प्रशिक्षण देने से भी अधिक कठिन काम है ?
मेरी आशंकायें फिर वही हैं कि माओवादियों की वास्तविक पीड़ा क्या है ? लोकतंत्र में उनकी आस्था है भी या नहीं ? यदि लोकतंत्र में आस्था नहीं है तो कोई विकास, कोई बातचीत, कोई नीति उन्हें हथियार डालने को सहमत नहीं कर सकती है। माओवाद के पक्ष में राजनेताओं की कमी नहीं है, मुख्यमंत्रियों, सांसदों, विधायकों की पर्याप्त सहानुभूति नक्सलवाद के प्रति जाहिर और प्रमाणित है। फिर यह कहना कि आदिवासी उपेक्षित हैं इसलिये हथियारबंद है मानवता के साथ भद्दा मज़ाक है। उन निकृष्ट राजनीतिज्ञों ने सत्ता में रहते हुए और सत्ता के बाहर क्या कभी कोई लोकतांत्रिक कदम आदिवासियों के हक़ में उठाया है, हथियार की राजनीति को छोड़ने का मन बनाया है ? माओवादियों के सहयोग से हथियारों के दम पर वर्चस्ववादी राजनीति और हफ्तावसूली में हिस्सेदारी लेने वाले या उनकी बंदूकों के डर से सत्य से मुंह फेर लेने और चन्दा देने वाले राजनीतिज्ञ ही आदिवासियों के असली दुश्मन हैं, लेकिन मारना तो उनको भी नहीं चाहिये।
दूसरे अतिवादी जो कहते हैं कि माओवादियों से युद्ध छेड़ कर उनको खत्म कर देना चाहिये। वे भ्रम में हैं। जिन बच्चों ने कभी ककहरा नहीं सीखा, जिन्हें सम्मोहित कर बंदूक थमा दी गई उन्हें बचाने की इस देश को जरूरत है। यह काम बिना युद्ध के भी दृढ़ इच्छाशक्ति से किया जा सकता है। अपनापक्ष उज्ज्वल करना होगा। माओवाद के स्रोतों को सुखाकर, देश के गद्दारों के मुखौटे नोचने होंगे। भारत एक बड़ा और समृद्ध राष्ट्र है वह न्यूनतम हिंसा से भी इस समस्या से पार पा सकता है यदि वोटों की राजनीति से फुर्सत पा जाये।
(शेष अगली किस्त में)

Wednesday, April 14, 2010

ग़ज़ल

पहलू में आ बैठी है क़यामतों की रात
सोची बहुत है तुमने सभासदों की बात

जब आ गई दिलों में बग़ावतों की बात
तरक़ीब से होने लगी ख़ुशामदों की बात

आख़िरी चीख़ें तो कोई सुन नहीं सका
अब जो याद आती हैं हताहतों की बात !

ग़ल्तियाँ हो जाती हैं कुछ सोचकर कहो
करते नहीं हैं इस तरह ज़लालतों की बात

वाजिब-से हो चले हैं ख़यानतों के खेल
दर-दर भटक रही है अमानतों की बात

रातों पे हो रहे थे जब रोशनी के ज़ुल्म
नानी सुना रही थी तब रहमतों की बात