Tuesday, January 26, 2010

चार पैसे !

चार पैसे !



रुकने नहीं देते

विचलित करते हैं मन को

कदमों को टिकने नहीं दे रहे हैं

कह नहीं सकता उद्विग्न हूँ मैं या उल्लसित

हाथ बार-बार जाता है

टटोल आता है

और साथ में लाता है एक संतुष्टि, एक धैर्य, एक विश्वास

एक सपना, एक उम्मीद, एक गर्व का भाव भी

एक बेचैनी सी उगाता

हाथ जब-जब टटोलकर आता है

तो साथ लाता है एक डर भी



देर रात तक नींद नहीं आती

और आँखें एक सपना-सा बुनती रहती हैं

नींद उचट जाती है

आधीरात में जैसे अचानक निकल आया हो दोपहर का सूरज

ओह ! याद भी तो नहीं रहता सपना

आखिर कितनी आसानी से सुलझ तो गई थी गुत्थी

कितनी आसानी से !

अब क्या ? अब क्या ! वो तो सपने में हुआ था

जो याद नहीं है अब मुझे



ओह ! मुझे क्या बना दिया है इसने

जब से आया है मेहनत के वृक्ष पर फल

कितनी मशक़्क़तों, कितने इंतज़ारों के बाद

कैसी घनघोर निराशा को चीर!

मेरी अधेड हड्डियों को फिर से युवा करते हुए

रगों में हो गई है ख़ून की रफ्तार तेज़

जैसे किसी दौड में भाग ले रहा हो रक्त

बुझती आँखों में अचानक भरदी है चमक

ऐसी कि !

मुद्दतों बाद शर्मा गई अर्द्धांगिनी भी



ओह हो ! कब होगी सुबहा

अभी पूरे तीन घण्टे बाकी हैं

कितना कठिन है खुद को संयमित रखना

करवटें बदलते शांत पड़े रहना भी

दुश्वार है, ओह ! बहुत कठिन

यदि नहीं हो वो

हाथ फिर चला जाता है टटोलने

मेरी ज़ेब में आजकल

दो नहीं, चार पैसे हैं

मैं क्या करूं !!!



मैं ऐसा तो नहीं था कभी

मुझे ऐसे तो पहले कभी नहीं लगे ये बच्चे

कुछ भी खास नहीं था इनकी माँ में

इन बूढ़े माँ-बाप के प्रति कभी तो नहीं था द्रवित

आज तो नहीं कोई खीझ, कोई उदासी, कोई अनमनापन

आज तो नहीं रह सकता मैं असम्पृक्त

भीतर-भीतर उठ रही हैं हिलोरें

उमड़ रहे हैं बादल वात्सल्य के, प्रेम के , करुणा के

ये ही चार पैसे तो मुग्ध किये जा रहे हैं मुझे

इस बेतरतीब से, उजड़े से, अस्तव्यस्त से घर पर



ये जो मुट्ठी में, ज़ेब में,

पत्नी के बटुए में, बैंक के खाते में

आलमारी की तिजोरी में

चार पैसे रखे हैं, बहुत गरम-गरम हैं



क्या करदूँ !

आज तो पूछ लूँ भाव

संतरे का, गुड़ का, जलेबी का

साडी का, साईकल का, आँख के आपरेशन का

बाय के, गठिया के तेल का

सूट का, सिलाई का, फ्रीज़ का

कूलर का, मेज़ का, कुर्सी का, फ्लैट का

बडी वाली चारपाई का, बिछिया का

रुमालों का, पिकनिक का

फिल्म के टिकिट का, पतंग का

बल्ले का, गेंद का, फ्रॉक का, जींस का

बैड़शीट का, कहानी का, पहेली का

आज तो पूछ लूँ मैं भाव

आज तो सौदा करने से पहले

जमकर कर सकता हूँ मोलभाव



ओह ! तो, ठेली वाले को

थड़ी वाले को, फुटपाथिये को

दुकान वाले को, परचूनी वाले को

माल वाले को, मेले वाले को

कम्पनी को, व्यापारी को, सरकार को

अफसर को, बाबू को, थानेदार को

नकल नवीस को, नाई को, मोची को, धोबी को

बिचौलिये को, दलाल को

सारे के सारे बाज़ार को

भनक लग गई है मेरी तिजोरी की,

ज़ेब की, बैंक खाते की



ओह ! तो सबने छोड़ रखे हैं जासूस मेरे पीछे

या, अर्द्धांगिनी नहीं रखती छुपाकर अपना बटुआ

या वो बातूनी औरत बघारती है बाज़ार में शेखी

ओह ! या मैं खुद ही नहीं रख पाता खुद को जब्त

ओह ! ये कमबख्त हाथ

बिना हुए चाक-चौकस

सरेआम, बार-बार जो चला जाता है टटोलने

ओह ! ये कांईया बाज़ार, लुच्चा !, बदमाश !

मेरे भोले-भाले बच्चों को बरगलाकर, बहला-फुसलाकर

उगलवा लेता है मेरे घर के राज़



खैर !

मैं बचूंगा बिचौलियों से, दलालों से

लाल-गुलाबी गालों से, काले-रंगीले बालों से

घमण्डी घरवालों से, अज़नबी बाहर वालो से

घुन्नों से, वाचालों से

दमकते गोरों से, मन के कालों से



ओह ! मैं तो निकला था घर से सपने लिये

धरती पर कदमों से सिवा कुछ था ही नहीं

तो चार कदम पर ही छोड गया !

सपना, उल्लास, उमंग, गर्व, धैर्य, संयम, विश्वास

चार ही कदम में हो गया रक्षात्मक !

हाथ फिर से बढ़ रहा है सावधानी से

टटोलकर नहीं लौटा इसबार

मुट्ठी में कसकर दबा लिये हैं उसने चार पैसे !

वाह ! मेरे हाथ, शाबाश !!!



ऊँचे चमकीले, दमकते, सुसज्जित

कालीनों से ढँके हैं जिनके फ़र्श

बहुमंज़िला इमारतों को दूर-दूर से घूरते

सड़क के दोनों ओर एक-एक पोस्टर को, इश्तहार को

अक्षरशः पढ़ते

घण्टों खड़ा रहता हूँ एक-एक दुकान के आगे
करता हूँ ताक-झाँक चोर-उचक्कों की तरह

सस्ते की तलाश में

इस कोने से उस कोने तक बाजार के

ठुकराता, लडखडाता

मुठ्ठी के दबाव में चार पैसों की रंगत बिगाड़ता

पैदल ही नापता हूँ मीलों की दूरियाँ





धीरे-धीरे

नज़र ने कर दिया है इंकार

बहुमंजिला माल की ओर देखने से

उठने से चमक-दमक के आगे



कदमों ने कर दिया है साफ मना

मेलों में जाने से

जहाँ इशारों से, इश्तहारों से, निमन्त्रण पत्रों से

अनुनय से, विनय से, प्यार से, मिठास से

नाम लेकर बुलाया जाता है आदर से

परिवार समेत,

नाचने-गाने के लिये, मनोरंजन के लिये

जहाँ सजाकर रखा है

सभ्यता को, संस्कृति को, इतिहास को, ज्ञान को

हमारी पहचान को

जहाँ एंजोय करने से पहले केवल रजिस्ट्रेशन है अनिवार्य

जहाँ नाचना गाना है

वहीं खरीदकर खाना है



नाक ने इंकार किया है तीखी गंध लेने से

और जीभ ने चटपटे-मीठे स्वाद से



हाथों ने भी खडे कर दिये हैं हाथ

मेलों में किताबों उठाकर पलटने से



कान नहीं दे रहे हैं कान

छूट पर, डिसकाउंट पर, फ्री के प्रस्तावों पर

किस्तों के ऑफर पर



मन ने साफ-साफ मना किया है

किसी भी लालच में फंसने से, भोग से, विलास से

विश्वास ने हाथ खैंच लिया है

बचत से, निवेश से, भरोसे से

ओह ! ओह ! शाबाश मेरी इन्द्रियों !!!



अब

आँख, कान, नाक, मन, हाथ, कदम

सब दौड़ते हैं सस्ते की तलाश में

छोटी, अंधेरी दुकानों की ओर

पतली, गंदी, बदबूदार गलियों में

सड़े, गले, बासी पर

शहर के बाहरी इलाकों में



जब थककर सब हो जाते हैं चूर

घर होने लगता हो दूर-दूर

घिरने लगे अंधेरा तो

सब थके-मांदे साथी साथ-साथ

एक-दूसरे को देते दिलासा

सुस्त-मुर्दानी चाल से

लौटते हैं घर



हाथ कसता है मुठ्ठी

और भर जाता है विजयी भाव से

हथेली में अभीतक मौजूद हैं चार पैसे

चाहे उड गई हो रंगत

पर पूरे चार के चार



घिर आये हैं बच्चे

पास आयी है पत्नी

खुल गई है मुठ्ठी



सबने संभाला नया सामान

पडौसियों को भिजवादी है खबर

हमारे घर आया है संतोष !!!

2 comments:

Rangnath Singh said...

कविता अच्छी लगी। जीवन-संघर्ष में मात्र दो पैसे अधिक आ जाने के विडंबनामूलक प्रभाव का अच्छा चित्र खिंचा है।

सुशीला पुरी said...

कविता प्रभावी है ..........