ग़ज़ल
(1)
शाम जब-जब उदास होती है
ज़िदगी आसपास होती है
दिल की बातें किसी से करने दो
अक़्ल क्या सबके पास होती है
कब तलक अपने ग़म छुपाओगे
आँख भी मेरे पास होती है
तुमसे मिलके मैंने ये जाना
वफ़ा अश्कों के पास होती है
जान जाए कि जान बच जाए
जान जाने के पास होती है
(2)
हर आदमी के नाम का काग़ज़ नहीं है
आदमी का क़द मगर काग़ज़ नहीं है
काग़ज़ों ने ज़िदगी का मात दी है
ज़िदगी फिर भी मेरी काग़ज़ नहीं है
तक़दीर में तरमीम का पर्चा चलाया
फिर जवाब आया वहाँ काग़ज़ नहीं है
काग़ज़ों की काग़ज़ों से काग़ज़ों में है लड़ाई
कौन समझे! काग़ज़ों ता फ़ैसला काग़ज़ नहीं है
काग़ज़ों के वक़्त में सब आदमी भी काग़ज़ी
काग़ज़ों से हो रही वो पीड़ तो काग़ज़ नहीं है
Wednesday, March 25, 2009
कविता
चिड़िया
उठा लाई तिनका, चिड़िया
घर बनाएगी वह मेरे घर में
कोई भी नहीं देख पाता है अपने घर में दूसरा घर
मैं भी उठाकर फैंक दूँगा चिड़िया के सारे तिनके
चिड़िया चहकेगी! फिर उठा लाएगी ढेर-सारे तिनके
बनाकर ही मानेगी वह मेरे घर में घर
और मैं उठा-उठाकर फैंकता रहूँगा घरों पर घर
फिर चिड़िया वहाँ बनाएगी घर
जहाँ मेरे ही घर में नहीं पहुँचती मेरी नज़र
लेकिन मैं देख लूँगा एक दिन अपने घर में दूसरा घर
आखिर मेरा अपना है घर
उठाकर ले जाऊँगा घोंसला अंड़ों समेत
फैंकने पर फूट सकते हैं अंड़े
मैं ये पाप नहीं करूँगा
दूर रख आऊँगा घोंसला अंड़ों समेत
मैं नहीं समझूँगा चिड़िया की भाषा में-
कि घरों को भी होती है एक अदद छत की ज़रूरत
वे नहीं छोड़े जा सकते खुले आसमान में
फिर पनपते ही हैं सब घरों में घर
सबके घर तोड़ने वाले भी होते हैं;
अंड़े फूट भी जाते हैं और किसी को भी नहीं लगता उनका पाप
ऐसी बहुत-सी बातें
कि मेरा घर भी है किसी के घर में घर
कि इतने घरों में भी क्यूं नहीं मिलता घर में घर
मैं कभी नहीं समझूँगा चिड़िया की भाषा में
चिड़िया चाहे कितना ही चहके।।।
उठा लाई तिनका, चिड़िया
घर बनाएगी वह मेरे घर में
कोई भी नहीं देख पाता है अपने घर में दूसरा घर
मैं भी उठाकर फैंक दूँगा चिड़िया के सारे तिनके
चिड़िया चहकेगी! फिर उठा लाएगी ढेर-सारे तिनके
बनाकर ही मानेगी वह मेरे घर में घर
और मैं उठा-उठाकर फैंकता रहूँगा घरों पर घर
फिर चिड़िया वहाँ बनाएगी घर
जहाँ मेरे ही घर में नहीं पहुँचती मेरी नज़र
लेकिन मैं देख लूँगा एक दिन अपने घर में दूसरा घर
आखिर मेरा अपना है घर
उठाकर ले जाऊँगा घोंसला अंड़ों समेत
फैंकने पर फूट सकते हैं अंड़े
मैं ये पाप नहीं करूँगा
दूर रख आऊँगा घोंसला अंड़ों समेत
मैं नहीं समझूँगा चिड़िया की भाषा में-
कि घरों को भी होती है एक अदद छत की ज़रूरत
वे नहीं छोड़े जा सकते खुले आसमान में
फिर पनपते ही हैं सब घरों में घर
सबके घर तोड़ने वाले भी होते हैं;
अंड़े फूट भी जाते हैं और किसी को भी नहीं लगता उनका पाप
ऐसी बहुत-सी बातें
कि मेरा घर भी है किसी के घर में घर
कि इतने घरों में भी क्यूं नहीं मिलता घर में घर
मैं कभी नहीं समझूँगा चिड़िया की भाषा में
चिड़िया चाहे कितना ही चहके।।।
ग़ज़ल
ग़ज़ल
(1)
हालात की माना बहुत मज़बूरियाँ हैं
आप में भी तो बला की ख़ूबियाँ हैं
मुल्क सारे हो गए नज़दीक, लेकिन
आदमी की आदमी से दूरियाँ हैं
अब हमें समझाइएगा खोलकर भी
जी! नसीहत हैं कि ये पहेलियाँ हैं?
बिक रहीं आपके बाज़ार में छूट पर,
ये हमारे देश की चमेलियाँ हैं
हरगिज़ नहीं नसीब, क्या पढ़ रहे हो
ये तुम्हारे हाथ हैं, हथेलियाँ हैं
भीड़ दौड़ेगी अभी, पैकट गिरेंगे
भूख में भी तो बड़ी रंगरेलियाँ हैं
(2)
देता है मुझे भी वो आवाज़ ऐसे
मेरा साया नहीं, हो जल्लाद जैसे
छोड़कर दूर निकल जाता है
ज़्यादा है उसकी परवाज़ जैसे
ज़हन उलझन से भरा रहता है
मैं करूँ अक़्ल की बात कैसे
मिलता है मुझे काम तो लेकिन
कम ही आते हैं मेरे हाथ पैसे
मुझसे मेरी अब नहीं निभती
मेरी बातें ऐसी हैं, अंदाज ऐसे
(3)
न दाँत अपने, न आँत अपनी
अधपकी है अभी बात अपनी
अपने काँधे पे ढोयी गई
बहुत लम्बी है हयात अपनी
दिन होली, क्या रात दिवाली
न दिन अपने, न रात अपनी
लाइन में रह, इंतज़ार कर
अभी पूछी गई है जात अपनी!
किनारे से फंदा फैंका गया है
टाँग आ गई उनके हाथ अपनी!
(4)
बात ऐसी भी नहीं है, बात वैसी भी नहीं है
क्या कहूँ तुमसे, बात कैसी भी नहीं है
ये जो दुनिया है, जिसमें रहना है हमें
तेरे जैसी भी नहीं है, मेरे जैसी भी नहीं है
शहर की शान है तो मंहगी भी बहुत
इतनी ऊँची जगह है, रहने जैसी भी नहीं है
एक शख़्स बोलता है हमारे मुँह पर, मगर बात
मेरे जैसी भी नहीं है, तेरे जैसी भी नहीं है
बात ऐसी भी नहीं है, बात वैसी भी नहीं है
मैं कुछ भी कहूँ कैसे?, कहने जैसी भी नहीं है
(1)
हालात की माना बहुत मज़बूरियाँ हैं
आप में भी तो बला की ख़ूबियाँ हैं
मुल्क सारे हो गए नज़दीक, लेकिन
आदमी की आदमी से दूरियाँ हैं
अब हमें समझाइएगा खोलकर भी
जी! नसीहत हैं कि ये पहेलियाँ हैं?
बिक रहीं आपके बाज़ार में छूट पर,
ये हमारे देश की चमेलियाँ हैं
हरगिज़ नहीं नसीब, क्या पढ़ रहे हो
ये तुम्हारे हाथ हैं, हथेलियाँ हैं
भीड़ दौड़ेगी अभी, पैकट गिरेंगे
भूख में भी तो बड़ी रंगरेलियाँ हैं
(2)
देता है मुझे भी वो आवाज़ ऐसे
मेरा साया नहीं, हो जल्लाद जैसे
छोड़कर दूर निकल जाता है
ज़्यादा है उसकी परवाज़ जैसे
ज़हन उलझन से भरा रहता है
मैं करूँ अक़्ल की बात कैसे
मिलता है मुझे काम तो लेकिन
कम ही आते हैं मेरे हाथ पैसे
मुझसे मेरी अब नहीं निभती
मेरी बातें ऐसी हैं, अंदाज ऐसे
(3)
न दाँत अपने, न आँत अपनी
अधपकी है अभी बात अपनी
अपने काँधे पे ढोयी गई
बहुत लम्बी है हयात अपनी
दिन होली, क्या रात दिवाली
न दिन अपने, न रात अपनी
लाइन में रह, इंतज़ार कर
अभी पूछी गई है जात अपनी!
किनारे से फंदा फैंका गया है
टाँग आ गई उनके हाथ अपनी!
(4)
बात ऐसी भी नहीं है, बात वैसी भी नहीं है
क्या कहूँ तुमसे, बात कैसी भी नहीं है
ये जो दुनिया है, जिसमें रहना है हमें
तेरे जैसी भी नहीं है, मेरे जैसी भी नहीं है
शहर की शान है तो मंहगी भी बहुत
इतनी ऊँची जगह है, रहने जैसी भी नहीं है
एक शख़्स बोलता है हमारे मुँह पर, मगर बात
मेरे जैसी भी नहीं है, तेरे जैसी भी नहीं है
बात ऐसी भी नहीं है, बात वैसी भी नहीं है
मैं कुछ भी कहूँ कैसे?, कहने जैसी भी नहीं है
लेबल:
ग़ज़ल
Subscribe to:
Posts (Atom)